गीता प्रेस, गोरखपुर >> नल-दमयन्ती नल-दमयन्तीजयदयाल गोयन्दका
|
4 पाठकों को प्रिय 8 पाठक हैं |
प्रस्तुत है नल-दमयन्ती का जीवन चरित्र.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरिः।।
निवेदन
वेदव्यासजी के लिये आया है—‘अचतुर्वेदनो ब्रह्मा
द्विबाहुरपरो
हरिः। अभाललोचनः शम्भुः भगवान् बादरायणः।’ अर्थात् भगवान्
वेदव्यासजी चार मुखों से रहित ब्रह्मा हैं, दो भुजाओं वाले दूसरे विष्णु
हैं और ललाटस्थिति नेत्र से रहित शंकर हैं अर्थात् वे
ब्रह्मा-विष्णु-महेशरूप हैं। संसार में जितनी भी कल्याणकारी, विलक्षण
बातें हैं, वे सब वेदव्यासजी के ही उच्छिष्ट
हैं—‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’। ऐसे
वेदव्यासजी
महाराजने जीवों के कल्याण के लिये महाभारत की रचना की है उस महाभारत का
संक्षेप जीवनमुक्त तत्त्वज्ञ भगवत्प्रेमी महापुरुष सेठजी श्रीजयदयालजी
गोयन्दका ने किया है। इस प्रकार वेदव्यासजीके द्वारा मूलरूप से और सेठजीके
द्वारा संक्षिप्तरूप से लिखी हुई महाभारत में से सबके लिये उपयोगी कुछ
कथाओं का चयन किया गया है। इन कथाओं में एक विशेष शक्ति है, जिससे इनको
पढ़ने से विशेष लाभ होता है। उनमें से नल-दमयन्ती की कथा पाठकों की सेवा
में प्रस्तुत है। पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तक को
स्वयं भी पढ़ें और दूसरों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें।
विनीत
स्वामी रामसुखदास
स्वामी रामसुखदास
नल-दमयन्ती कथा
कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।
ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।।
ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।।
महात्मा अर्जुन जब अस्त्र प्राप्त करने के लिये इन्द्रलोक चले गये, तब
पाण्डव काम्यक वन में निवास कर रहे थे। वे राज्य के नाश और अर्जुन वियोग
से बड़े ही दुःखी हो रहे थे। एक दिन की बात है, पाण्डव और द्रौपदी इसी
सम्बन्ध में कुछ चर्चा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को समझा ही
रहे थे कि महर्षि बृहदश्व उनके आश्रम में आते हुए दीख पड़े।
महर्षि बृहदश्व को आते, देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने आगे जाकर शास्त्रविधि के अनुसार उनकी पूजा की, आसनपर बैठाया। उनके विश्राम कर लेने पर युद्धिष्ठिर उनसे अपना वृत्तान्त कहने लगे। उन्होंने कहा कि ‘महाराज’ ! कौरवों ने कपट-बुद्धि से मुझे बुलाकर छलके साथ जूआ खेला और मुझ अनजान् को हराकर मेरा सर्वस्व छीन लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेरी प्राणप्रिया द्रौपदी को घसीटकर भरी सभा में अपमानित किया। उन्होंने अन्त में हमें काला मृगछाला ओढ़ाकर घोर वनमें भेज दिया। महर्षे ! आप ही बतलाइये कि इस पृथ्वी पर मुझ-सा भाग्यहीन राजा और कौन है ! क्या आपने मेरे-जैसा दुःखी और कहीं देखा या सुना है ?’
महर्षि बृहदश्वने कहा—धर्मराज ! आपका यह कहना ठीक नहीं है कि मुझ-सा दुःखी राजा और कोई नहीं हुआ; क्योंकि मैं तुमसे भी अधिक दुःखी और मन्दभाग्य राजा का वृत्तान्त जानता हूँ। तुम्हारी इच्छा हो तो सुनाऊँ।
धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह करने पर महर्षि बृहदश्वने कहना प्रारम्भ किया।
महर्षि बृहदश्व को आते, देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने आगे जाकर शास्त्रविधि के अनुसार उनकी पूजा की, आसनपर बैठाया। उनके विश्राम कर लेने पर युद्धिष्ठिर उनसे अपना वृत्तान्त कहने लगे। उन्होंने कहा कि ‘महाराज’ ! कौरवों ने कपट-बुद्धि से मुझे बुलाकर छलके साथ जूआ खेला और मुझ अनजान् को हराकर मेरा सर्वस्व छीन लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेरी प्राणप्रिया द्रौपदी को घसीटकर भरी सभा में अपमानित किया। उन्होंने अन्त में हमें काला मृगछाला ओढ़ाकर घोर वनमें भेज दिया। महर्षे ! आप ही बतलाइये कि इस पृथ्वी पर मुझ-सा भाग्यहीन राजा और कौन है ! क्या आपने मेरे-जैसा दुःखी और कहीं देखा या सुना है ?’
महर्षि बृहदश्वने कहा—धर्मराज ! आपका यह कहना ठीक नहीं है कि मुझ-सा दुःखी राजा और कोई नहीं हुआ; क्योंकि मैं तुमसे भी अधिक दुःखी और मन्दभाग्य राजा का वृत्तान्त जानता हूँ। तुम्हारी इच्छा हो तो सुनाऊँ।
धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह करने पर महर्षि बृहदश्वने कहना प्रारम्भ किया।
दमयन्ती का स्वयंवर और विवाह
धर्मराज ! निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा हो चुके हैं।
वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ
एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी।। वे स्वयं अस्त्रविद्या में
बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जूआ
खेलने का भी कुछ-कुछ शौक था। उन्हीं दिनों विदर्भ देश में भीम नाम के एक
राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न और पराक्रमी थे।
उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतानें प्राप्त की थीं—तीन पुत्र और एक कन्या। पुत्रों के नाम थे—दम, दान्त, और दमन। पुत्री का नाम था—दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भ देश से निषध देश में आते और राजा नल के सामने दमयन्ती के रूप और गुण का बखान करते। निषध देश से विदर्भ में जानने वाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया।
एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा—‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’
नल ने हंसको छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। दमयन्ती अपने हंसों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसों को पकड़ने के लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि ‘अरी दमयन्ती ! निषध देश में एक नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुन्दर और कोई नहीं है। वह मानो मूर्तिमान् कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जायँ। हम लोगों ने देवता, गंधर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को घूम-घूमकर देखा है नल के समान कहीं सुन्दर पुरुष देखने में नहीं आया। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों में भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।’ दमयन्ती ने कहा—‘हंस ! तुम नल से भी ऐसी बात कहना।’ हंसने निषध देश में लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया।
दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीमने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।
देवर्षि नारद और पर्वत के द्वारा देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र आदि सभी लोकपाल भी अपनी मण्डली और वाहनों सहित विदर्भ देश के लिये रवाना हुए। राजा नल का चित्त पहले से ही दमयन्ती पर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये विदर्भ देश की यात्रा की। देवताओं ने स्वर्ग से उतरते समय देख लिया कि कामदेव के समान सुन्दर नल दमयन्ती के स्वयंवर के लिये जा रहे हैं। नल की सूर्य के समान कान्ति और लोकोत्तर रूप-सम्पत्ति से देवता भी चकित हो गये। उन्होंने पहिचान लिया कि ये नल हैं। उन्होंने अपने विमानों को आकाश में खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर नल से कहा—‘राजेन्द्र नल ! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हम लोगों की सहायता करने के लिए दूत बन जाइये।’ नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि ‘करूँगा’। फिर पूछा कि ‘आप लोग कौन हैं और मुझे दूत बनाकर कौन-सा काम लेना चाहते हैं ?’ इन्द्र ने कहा—‘हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हम लोग दमयन्ती के लिये यहाँ आये हैं।
आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइये और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहे जिस देवता को पति के रूप में स्वीकार कर लो।’ नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि ‘देवराज’ ! वहाँ आप लोगों के और मेरे जाने का एक ही प्रयोजन है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो, वह भला, उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है ? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिये।’
उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतानें प्राप्त की थीं—तीन पुत्र और एक कन्या। पुत्रों के नाम थे—दम, दान्त, और दमन। पुत्री का नाम था—दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भ देश से निषध देश में आते और राजा नल के सामने दमयन्ती के रूप और गुण का बखान करते। निषध देश से विदर्भ में जानने वाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया।
एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा—‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’
नल ने हंसको छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। दमयन्ती अपने हंसों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसों को पकड़ने के लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि ‘अरी दमयन्ती ! निषध देश में एक नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुन्दर और कोई नहीं है। वह मानो मूर्तिमान् कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जायँ। हम लोगों ने देवता, गंधर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को घूम-घूमकर देखा है नल के समान कहीं सुन्दर पुरुष देखने में नहीं आया। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों में भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।’ दमयन्ती ने कहा—‘हंस ! तुम नल से भी ऐसी बात कहना।’ हंसने निषध देश में लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया।
दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीमने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।
देवर्षि नारद और पर्वत के द्वारा देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र आदि सभी लोकपाल भी अपनी मण्डली और वाहनों सहित विदर्भ देश के लिये रवाना हुए। राजा नल का चित्त पहले से ही दमयन्ती पर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये विदर्भ देश की यात्रा की। देवताओं ने स्वर्ग से उतरते समय देख लिया कि कामदेव के समान सुन्दर नल दमयन्ती के स्वयंवर के लिये जा रहे हैं। नल की सूर्य के समान कान्ति और लोकोत्तर रूप-सम्पत्ति से देवता भी चकित हो गये। उन्होंने पहिचान लिया कि ये नल हैं। उन्होंने अपने विमानों को आकाश में खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर नल से कहा—‘राजेन्द्र नल ! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हम लोगों की सहायता करने के लिए दूत बन जाइये।’ नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि ‘करूँगा’। फिर पूछा कि ‘आप लोग कौन हैं और मुझे दूत बनाकर कौन-सा काम लेना चाहते हैं ?’ इन्द्र ने कहा—‘हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हम लोग दमयन्ती के लिये यहाँ आये हैं।
आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइये और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहे जिस देवता को पति के रूप में स्वीकार कर लो।’ नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि ‘देवराज’ ! वहाँ आप लोगों के और मेरे जाने का एक ही प्रयोजन है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो, वह भला, उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है ? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिये।’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book